गुप्त सम्भवत: कृषाणों के सामन्त थे। गुप्त वंश की स्थापना श्रीगुप्त (275-300 ई.) ने की थी। गुप्त वंश का दूसरा शासक घटोत्कच (300-20 ई .) हुआ था। चन्द्रगुप्त प्रथम ने ही गुप्त वंश को एक साम्राज्य को प्रतिष्ठा प्रदान की तथा एक नया गुप्त संवत् (319 ई.) मे चलाया । चन्द्रगुप्त प्रथम गुप्त वंश का पहला शासक था जिसने महाराजाधिराज की उपाधि ग्रहण की | उसने लिच्छवी राजकुमारी कुमार देवी से विवाह किया। गुप्त संवत् (319-20 ई .) तथा शक संवत् (78 ई ) के बीच 241 वर्षों का अन्तर था| गुप्तवंश में ही सर्वप्रथम चन्द्रगुप्त प्रथम ने ही रजत (चाँदी ) मुद्राओं का प्रचलन करवाया था। चन्द्रगुप्त प्रथम के बाद उसका पुत्र समुद्रगुप्त शासक बना | इसके समय में गुप्त साम्राज्य का सर्वाधिक विस्तार हुआ | समुद्रगुप्त के इतिहास का सर्वप्रथम स्रोत उसका प्रयाग स्तम्भ लेख है, जिसमें “धर्म प्रचार बंधु” उपाधि का उल्लेख है। प्रयाग स्तम्भ लेख को मुगल सम्राट अकबर ने कोशाम्बी से मँगाकर इलाहाबाद के किले में सुरक्षित रखवाया | प्रयाग स्तम्भ लेख में बीरबल तथा जहाँगीर का भी लेख मिलता है। यह विशुद्ध रूप में ब्राह्यी लिपि तथा संस्कृत भाषा में लिखा गया। सर्वप्रथम समुद्रगुप्त ने 9 राजाओं को पराजित किया जिसमें अच्युत, नागसेन तथा गणपतिनाग प्रमुख थे। दक्षिणापथ के युद्ध में समुद्रगुप्त ने 12 राजाओं को परास्त किया, परन्तु पुन: उन्हें स्वतन्त्र कर दिया । इसे दक्षिणापथ में ग्रहण मोक्षानुग्रह कहा गया है। समुद्रगुप्त ने अपनी विजयों के उपरान्त अश्वमेध यज्ञ किया था । इतिहासकार विन्सेट स्मिथ ने समुद्रगुप्त को “भारतीय नेपोलियन” कहा है। समुद्रगुप्त को कविराज भी कहा जाता है। वह कवि, संगीतज्ञ और विद्या का संरक्षक था। उसके सिक्कों पर उसे वीणा बजाते हुए चित्रित किया गया है। समुद्रगुप्त का दरबारी कवि हरिषेण था तथा वसुबन्धु को भी संरक्षण प्रदान किया था। समुद्रगुप्त विष्णु का उपासक था | उसने विक्रमांक की उपाधि धारण की | समुद्रगुप्त के पश्चात् चन्द्रगुप्त द्वितीय या विक्रमादित्य सर्वाधिक महत्वपूर्ण एवं शक्तिशाली शासक बना। चन्द्रगुप्त द्वितीय के अन्य नाम--देवगुप्त , देवराज, देवश्री थे तथा उपाधियाँ विक्रमांक, विक्रमादित्य , परमभागवत आदि थीं । चन्द्रगुप्त द्वितीय ने नाग राजकुमारी कुबेरनागा से विवाह किया । चन्द्रगुप्त द्वितीय ने अपनी पुत्री प्रभावती गुप्ता का विवाह वाकाटक नरेश रुद्रसेन द्वितीय से किया। उदयगिरि गुहालेख के शब्दों में चन्द्रगुप्त द्वितीय का उद्देश्य “सम्पूर्ण पृथ्वी को जीतना” (कृत्स्नपृथ्वीजय ) था। चन्द्रगुप्त ने शकों को हराने के उपलक्ष्य में शक राज्यों में चाँदी के सिक्के प्रचलित करवाये | भारतीय अनुश्रुतियाँ चन्द्रगुप्त का “शकारि' के रूप में स्मरण कराती हैं।
चन्द्रगुप्त द्वितीय के नवरत्न :-
(]) कालिदास(2) धन्वन्तरि (3) क्षपणक(4) अमरसिंह (5) शंकु (6) बेतालभट्ट (7) घटकर्पर(8) वराहमिहिर (9) वररुचि “चन्द्र” नामक राजा की पहचान चन्द्रगुप्त द्वितीय के साथ की गई हैं। चन्द्रगुप्त एक धर्मनिष्ठ वैष्णव था जिसने “परमभागवत” तथा “विक्रमादित्य” की उपाधि धारण की | चन्द्रगुप्त का सन्धिविग्रहिक सचिव वीरसेन शैव था। चन्द्रगुप्त का सेनापति आम्रकारईव बौद्ध था। चन्द्रगुप्त द्वितीय के समय में चीनी यात्री फाह्यान भारत आया जिसने मध्य प्रदेश को ब्राह्मणों का देश कहा | चीनी लेखक भारत का उल्लेख यिन-तु नाम से करते हैं। चन्द्रगुप्त द्वितीय के बाद कुमारगुप्त प्रथम गुप्त साम्राज्य की गद्दी पर बैठा। कुमारगुप्त के शासन का वर्णन विलसड अभिलेख में मिलता है। कुमारगुप्त का छोटा भाई गोविन्दगुप्त बसाढ़ (वैशाली) का राज्यपाल था। गुप्त शासकों में सर्वाधिक अभिलेख कुमार गुप्त के मिलते हैं। मध्य एशिया में निवास करने वाली एक बर्बर जाति हूण का प्रथम आक्रमण स्कन्दगुप्त के समय में हुआ। कुमारगुप्त के ही शासनकाल में नालन्दा विश्वविद्यालय की स्थापना हुई | इस विश्वविद्यालय ऑक्सफोर्ड ऑफ महायान बौद्ध कहा जाता है। कुमारगुप्त के सिक्कों से पता चलता है कि उसने अश्वमेध यज्ञ किया था। कुमारगुप्त की मृत्यु के बाद स्कन्दगुप्त शासक बना । स्कन्दगुप्त कुशल प्रशासक था उसने गिरनार पर्वत पर सुदर्शन झील के पुनरुद्धार का कार्य सौराष्ट्र के गवर्नर पर्णदत्त के पुत्र चक्रपालित को सौंपा था। स्कन्दगुप्त ने 466 में चीनी सांग सम्राट् के दरबार में राजदूत भेजा था। स्कन्दगुप्त ने समय में हणो* धा के लिए अपनी राजधानी अयोध्या स्थानान्तरित की | स्कन्दगुप्त के समय में हूणों ने आक्रमण किया था। अन्तिम गुप्त शासक भानुगुप्त था। गुप्त साम्राज्य के सबसे बड़े अधिकारी को कुमारामात्य कहा जाता था। सम्राट द्वारा जो क्षेत्र स्वयं शासित होता था । उसकी सबसे बड़ी प्रादेशिक इकाई देश थी। देश का प्रशासक गोप्ता कहा जाता था। राज्य के प्रान्तों को भुक्ति कहा जाता था। उन्हें प्रदेश तथा भोग भी कहा जाता था। प्रान्तीय शासकों की नियुक्ति सम्राट द्वारा दी जाती थी तथा उन्हें उपरिक , गोप्ता, भोगपति तथा राजस्थानीय कहा जाता था।
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